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गाजीपुर के ज़मानियां से सलीम मंसूरी की रिपोर्ट माह-ए-रमजान में तीस दिन को रोजे इंसान के जिस्मानी व रूहानी ताकत को मजबूत बनाता है। रोजे हमें भूखे रहने का एहसास भी दिलाता है। साथ ही साथ इंसानियत की तालीम भी देता है। रोजा जिस्म की अंदरूनी बीमारियों का खात्मा करने का बेहतरीन जरिया है। आज की भाग दौड़ की जिंदगी में इंसान को अपने अपने मजहबी तरीके से रोजा या उपवास बेहद जरूरी है। रोजे का एक साइंटिफिक नजरिया है। इस संबंध में दानिश ने तीस दिनों के रोजे के महत्व को बताते हुए कहा कि पहले दो रोजे से ब्लड शुगर लेवल गिरता है। यानी ख़ून से चीनी के ख़तरनाक असरात का दर्जा कम हो जाता है।दिल की धड़कन सुस्त हो जाती है। और ख़ून का दबाव कम हो जाता है। नसों जमाशुदा ग्लुकोज़ को आज़ाद कर देती हैं। जिसकी वजह से शरीर की कमज़ोरी का एहसास उजागर होने लगता है। ज़हरीले माद्दों की सफाई के पहले मरहले के नतीज़े में-सरदर्द, सर का चकराना, मुंह की बदबू खत्म हाेती है। तीसरे दिन से सातवें रोज़े तक जिस्म की चर्बी टूट फूट का शिकार होती है। और पहले मरहले में ग्लूकोज में बदल जाती है। कुछ लोगों की त्वचा मुलायम और चिकनी हो जाती है। जिस्म भूख का आदी होना शुरू हो जाता है। और इस तरह साल भर मसरूफ रहने वाला हाजमा सिस्टम ठीक रहता है। खून के सफ़ेद जरसूम और इम्युनिटी में बढ़ोतरी शुरू हो जाती है। हो सकता है रोज़ेदार के फेफड़ों में मामूली तकलीफ़ हो इसलिए कि ज़हरीले माद्दों (पदार्थो) की सफाई का काम शुरू हो चुका है। उन्होंने बताया की आंतों और कोलोन की मरम्मत का काम शुरू हो जाता है। आंतों की दीवारों पर जमा मवाद ढीला होना शुरू हो जाता है। तथा आठवें दिन से पंद्रहवें रोज़े तक रोज़ेदार पहले से ज्यादा चुस्त महसूस करते हैं। दिमागी तौर पर भी चुस्त और हल्का महसूस करते हैं। हो सकता है कोई पुरानी चोट या जख्म महसूस होना शुरू हो जाए। इसलिए कि आपका जिस्म अपने बचाव के लिए पहले से ज़्यादा एक्टिव और मज़बूत हो चुका होता है। मोहम्मद दानिश ने कहा की जिस्म अपने मुर्दा सेल्स को खाना शुरू कर देता है। जिनको आमतौर से केमोथेरेपी से मारने की कोशिश की जाती है। इसी वजह से सेल्स में पुरानी बीमारियों और दर्द का एहसास बढ़ जाता है। नाडिय़ों और टांगों में तनाव इसी अमल का क़ुदरती नतीजा होता है। जो इम्युनिटी के जारी अमल की निशानी है। रोज़ाना नामक के गरारे नसों की अकड़न का बेहतरीन इलाज है। सोलहवें दिन से तीसवें रोज़े तक इंसानी जिस्म पूरी तरह भूख और प्यास को बर्दाश्त का आदी हो चुका होता है। आप अपने आप को चुस्त, चाक व चौबंद महसूस करने लगते हैं। इन दिनों आप की ज़बान बिल्कुल साफ़ और सुथरी हो जाती है। सांस में भी ताजगी आ जाती है। जिस्म के सारे ज़हरीले माद्दों (पदार्थों) का ख़ात्मा हो चुका होता है। हाजमे के सिस्टम की मरम्मत हो चुकी होती है। जिस्म से फालतू चर्बी और खराब माद्दे निकल चुके होते हैं। बदन अपनी पूरी ताक़त के साथ अपने फऱाइज़ अदा करना शुरू कर देता है। बीस रोजों के बाद दिमाग़ और याददाश्त तेज़ हो जाते हैं। तवज्जो और सोच को मरकूज़ करने की सलाहियत बढ़ जाती है। बेशक बदन और रूह तीसरे अशरे की बरकत को भरपूर अंदाज़ से अदा करने के काबिल हो जाते हैं। ये तो दुनिया का फ़ायदा रहा। जिसे बेशक हमारे खालिक ने हमारी ही भलाई के लिए हम पर फजर किया। मगर देखिए उसका अंदाज़े कारीमाना कि उसके एहकाम मानने से दुनिया के साथ साथ हमारी आखिऱत भी संवारने का बेहतरीन बंदोबस्त कर दिया। माह-ए-रमजान में पांचों वक्त नियमित नमाजें अदा करने से जिस्मानी व दिमागी (शारीरिक व मानसिक) शक्ति में वृद्धि होती है। नफ्स (इंद्रियों) पर काबू पाने की सलाहियत में मजबूती आ जाती है। रोज़ा बुराइयों को कोसों दूर भगाने में मदद करती है। रोज़े की हर मजहब में अपनी खास अहमियत होती है। इससे जिस्म में पलने वाले परजीवी की खात्मा होती है। उपवास से बर्दाश्त व सहनश क्ति की क्षमता बढ़ती है। परहेजगारी में इजाफा होता है।