गाजीपुर के जमानियां स्थानीय हरपुर स्थित डिवाइन ग्लोबल स्कूल में क्रिसमस का त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। इस दौरान स्कूल के बच्चों ने सेंटा क्लाज बनकर सभी को हंसाया। और बच्चों में टाफी वितरण किया। बताया जाता है। की क्रिसमस ईसाइयों का पवित्र पर्व है। जिसे वह बड़ा दिन भी कहते हैं। प्रतिवर्ष 25 दिसंबर को प्रभु ईसा मसीह के जन्मदिन के रूप में संपूर्ण विश्व में ईसाई समुदाय के लोग विभिन्न स्थानों पर अपनी-अपनी परंपराओं एवं रीति-रिवाजों के साथ श्रद्धा, भक्ति एवं निष्ठा के साथ मनाते हैं। तथा चर्चों में क्रिसमस डे के उपलक्ष्य में बिजली की लड़ियों से परिसरों को सजाते है। क्रिसमस के मौके पर क्रिसमस वृक्ष का विशेष महत्व है। सदाबहार क्रिसमस वृक्ष डगलस, बालसम या फर का पौधा होता है जिस पर क्रिसमस के दिन बहुत खूब सूरत ढंग से सजावट की जाती है। अनुमानतः इस प्रथा की शुरुआत प्राचीन काल में मिस्रवासियों, चीनियों या हिबू्र लोगों ने की थी। इसके साथ ही यूरोप वासी भी सदाबहार पेड़ों से घरों को सजाते थे। ये लोग इस सदाबहार पेड़ की मालाओं, पुष्पहारों को जीवन की निरंतरता का प्रतीक मानते थे। उनका विश्वास था। कि इन पौधों को घरों में सजाने से बुरी आत्माएं दूर रहती हैं। डिवाइन ग्लोब स्कूल के प्रबंधक प्रकाश यादव उर्फ मिंटू यादव ने बताया कि आधुनिक क्रिसमस ट्री की शुरुआत पश्चिम जर्मनी में हुई। मध्यकाल में एक लोकप्रिय नाटक के मंचन के दौरान ईडन गार्डन को दिखाने के लिए फर के पौधों का प्रयोग किया गया। जिस पर सेब लटकाए गए। और इस पेड़ को स्वर्ग वृक्ष का प्रतीक दिखाया गया था। उन्होंने बताया कि उसके बाद जर्मनी के लोगों ने 24 दिसंबर को फर के पेड़ से अपने घर की सजावट करनी शुरू कर दी। इस पर रंगीन पत्रियों, कागजों और लकड़ी के तिकोने तख्ते सजाए जाते थे। विक्टोरिया काल में इन पेड़ों पर मोमबत्तियों, टॉफियों और बढ़िया किस्म के केकों को रिबन और कागज की पट्टियों से पेड़ पर बांधा जाता था। यादव ने यह भी बताया की इंग्लैंड में प्रिंस अलबर्ट ने 1841 ई. में विडसर कैसल में पहला क्रिसमड ट्री लगाया था। और क्रिसमस की रात सेंटा क्लॉज द्वारा बच्चों के लिए उपहार लाने की मान्यता है। ऐसी मान्यता है कि सेंटा क्लॉज रेंडियर पर चढ़कर किसी बर्फीले जगह से आते हैं। और चिमनियों के रास्ते घरों में प्रवेश करके सभी अच्छे बच्चों के लिए उनके सिरहाने उपहार छोड़ जाते हैं। सेंटा क्लॉज की प्रथा संत निकोलस ने चौथी या पांचवी सदी में शुरू की। वे एशिया माइनर के बिशप थे। उन्हें बच्चों और नाविकों से बेहद प्यार था। उनका उद्देश्य था कि क्रिसमस और नववर्ष के दिन गरीब-अमीर सभी प्रसन्न रहें। उनकी सद्भावना और दयालुता के किस्से लंबे अरसे तक कथा-कहानियों के रूप में चलते रहे। उक्त मौके पर स्कूल की प्रिंसिपल के साथ शिक्षक व शिक्षिका मौजूद रही।
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