जमानियाँ। आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी पर बुद्धवार को संतान की लंबी आयु, निरोगी जीवन और खुशहाली के लिए माताओं ने जीवत्पुत्रिका का व्रत रखा। शुरुआत सूर्य पूजन से करने के बाद माताओं ने दिन भर का व्रत रखा तथा क्षेत्र के चक्काबांध गंगा घाट, बडेसर गंगा घाट व नगर स्थित यमदाग्नि-परशुराम गंगा घाट, कंकडवा घाट के किनारे व्रती महिलाओं ने डुबकी लगाई। इस दौरान ब्रती महिलाओं की काफी भीड़ गंगा घाटों पर देखने को मिली। सुरक्षा के दृष्टिगत प्रत्येक घाटों पर प्रशासन चौकस दिखा।
तीन दिनों तक चलने वाला यह व्रत नहाए खाए के साथ शुरू होता है। दूसरे दिन निर्जला व्रत और तीसरे दिन व्रत का पारण किया जाता है। मान्यता है कि इस व्रत को रखने वाली स्त्री को कभी पुत्र शोक का दुख नहीं झेलना पड़ता है। ऐसी माताओं ने भी यह व्रत रखा, जिनके संतान तो होती है लेकिन किन्हीं कारणों से जीवित नहीं रह पाती। गुरूवार की सुबह पारण किया जायेगा।
जीवितपुत्रिका व्रत कथा
महाभारत युद्ध के पश्चात् पाण्डवों की अनुपस्थिति में कृतवर्मा और कृपाचार्य को साथ लेकर अश्वथामा ने पाण्डावो के शिविर मे प्रवेश किया। अश्वथामा ने द्रोपदी के पुत्रो को पाण्डव समझकर उनके सिर काट दिये। दूसरे दिन अर्जून कृष्ण भगवान को साथ लेकर अश्वथामा की खोज में निकल पडा और उसे बन्दी बना लिया। धर्मराज युधिष्ठर और श्रीकृष्ण के परामर्श पर उसके सिर की मणि लेकर तथा केश मूंडकर उसे बन्धन से मुक्त कर दिया। अश्वथामा ने अपमान का बदला लेने के लिये अमोघ अस्त्र का प्रयोग पाण्डवो के वशंधर उत्तरा के गर्भ पर कर दिया। पाण्डव का उस अस्त्र का प्रतिकार नही जाते थे। उन्होने श्रीकृष्ण से उत्तरा के गर्भ की रक्षा की प्रार्थना की। भगवान श्रीकृष्ण ने सूक्ष्म रूप से उत्तरा के गर्भ में प्रवेश करके उसकी रक्षा की। किन्तु उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न हुआ बालक मृत प्रायः था। भगवान ने उसे प्राण दान दिया। वही पुत्र पाण्डव वंश का भावी कर्णाधार परीक्षित हुआ। परीक्षित को इस प्रकार जीवनदान मिलने के कारण इस व्रत का नाम ”जीवित्पुत्रिका“ पड़ा।
आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को जीवित पुत्रिका के रूप में मनाते है इस व्रत को करने से पुत्र शोक नही नही होता है। इस व्रत का स्त्री समाज में बहुत ही महत्व है इस व्रत में सूर्य नारायण की पूजा की जाती है ।